29नवंबर का वो दिन 1989: जब राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया, भारतीय राजनीति में बदलाव की शुरुआत हुई
29 नवंबर 1989: फैसला आ चुका था
2 दिसंबर 1989: राजीव गांधी ने छोड़ा प्रधानमंत्री पद
बेटा, आओ आज तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। यह कहानी है 1989 की। उस समय भारत की राजनीति में ऐसा बदलाव आया, जिसने पूरे देश को हिला दिया। अब सोचो, यह वो दौर था जब भारत के हर कोने में लोग कांग्रेस का नाम लिया करते थे। इंदिरा गांधी का करिश्मा, और फिर उनके बेटे राजीव गांधी का उदय। लेकिन 1989 में ऐसा क्या हुआ कि सब बदल गया?
राजीव गांधी का उभरना और चुनौतियां
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। पूरा देश गम में था। लेकिन राजीव गांधी, जो पायलट थे और राजनीति से दूर रहते थे, अचानक देश के प्रधानमंत्री बन गए। लोगों को लगा कि यह युवा नेता देश को नई ऊंचाई पर ले जाएगा। और सच कहूं, बेटा, उन्होंने कोशिश भी की।
राजीव ने भारत में कंप्यूटर लाया, टेलीफोन सस्ते किए, युवाओं को प्रेरित किया। लेकिन राजनीति कभी आसान नहीं होती। उनके खिलाफ सबसे बड़ा झटका आया बोफोर्स घोटाले से। यह मामला एक तोपों की खरीद का था, जिसमें कहा गया कि दलाली हुई। राजीव गांधी का नाम इसमें घसीटा गया। तुम समझो, बेटा, लोगों को बहुत गुस्सा आया।
उधर, श्रीलंका में उन्होंने अपनी सेना भेजी शांति कायम करने के लिए। लेकिन वह कदम उल्टा पड़ गया। भारतीय जवान मारे गए, और लोग कहने लगे कि राजीव ने बिना सोचे-समझे यह कदम उठाया।
राजीव गांधी: राजनीति में वापसी की तैयारी और दुखद अंत
1989 के बाद, राजीव गांधी ने कांग्रेस का नेतृत्व जारी रखा और पार्टी को फिर से मजबूत करने की कोशिश की। 1991 के आम चुनावों में वह सक्रिय रूप से प्रचार कर रहे थे, लेकिन इस दौरान 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में एक आत्मघाती बम विस्फोट में उनकी हत्या कर दी गई। यह हमला लिट्टे (LTTE) द्वारा किया गया था, जिसे भारतीय शांति सेना के श्रीलंका मिशन का विरोध था
चुनाव का बिगुल और जनता का गुस्सा
फिर आया 1989 का चुनाव। बेटा, चुनाव का माहौल बड़ा गरम था। एक तरफ कांग्रेस थी, जो पिछले 40 सालों से राज कर रही थी। दूसरी तरफ थे विश्वनाथ प्रताप सिंह, जो पहले राजीव गांधी की ही सरकार में मंत्री थे। लेकिन बोफोर्स घोटाले के बाद उन्होंने बगावत कर दी। उन्होंने कहा, "मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ूंगा।"
चुनाव तीन चरणों में हुए। आखिरी चरण था 21 नवंबर 1989। पूरे देश में वोटिंग खत्म हुई, और लोग बस इंतजार कर रहे थे कि नतीजा क्या होगा।
29 नवंबर 1989: नतीजों का दिन
जब नतीजे आए, तो मानो भूचाल आ गया। कांग्रेस, जिसने 1984 में 414 सीटें जीती थीं, अब सिर्फ 197 सीटों पर सिमट गई। लोगों ने साफ-साफ कह दिया कि अब बदलाव चाहिए।
दूसरी तरफ, वीपी सिंह और उनका जनता दल गठबंधन मजबूत हो चुका था। भाजपा और वामपंथी दलों ने भी उनका समर्थन किया। यह पहली बार था जब कांग्रेस बहुमत से इतनी दूर रह गई थी।
2 दिसंबर 1989: राजीव का इस्तीफा
बेटा, सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है। 2 दिसंबर 1989 को राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद छोड़ दिया। वह जानते थे कि जनता का फैसला सर्वोपरि है। उसी दिन विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।
राजीव ने जाते-जाते कहा था, "मैंने देश के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। अब समय है कि कोई और यह जिम्मेदारी संभाले।" सोचो बेटा, वह दौर कितना अलग था। सत्ता में रहने की जिद नहीं, बल्कि लोकतंत्र का सम्मान सबसे ऊपर था।
राजनीति का नया युग
1989 के बाद भारत की राजनीति बदल गई। अब क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ने लगा। कांग्रेस का एकाधिकार टूट गया। गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ। और हां, बेटा, भाजपा ने भी तब अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं।
राजीव गांधी राजनीति में बने रहे। लेकिन 1991 में, चुनाव प्रचार के दौरान, उनकी हत्या हो गई। उस वक्त पूरा देश सदमे में था। मैंने तब सोचा था, राजनीति कितनी निर्दयी हो सकती है।
राजीव गांधी के कार्यकाल की चुनौतियां
राजीव गांधी का कार्यकाल जहां एक तरफ प्रगतिशील सुधारों के लिए जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर यह कई विवादों से भी घिरा रहा।
बोफोर्स घोटाला (1987):
- बोफोर्स घोटाले ने राजीव गांधी सरकार की छवि को बुरी तरह प्रभावित किया। स्वीडन की एक कंपनी से तोपों की खरीद में कथित भ्रष्टाचार के आरोपों ने विपक्ष को सरकार के खिलाफ एकजुट होने का मौका दिया।।
- यह घोटाला राजीव गांधी के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक संकट साबित हुआ और उनकी सरकार की लोकप्रियता में भारी गिरावट आई।
- श्रीलंका में भारतीय शांति सेना (IPKF):
- श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों और सरकार के बीच चल रहे गृहयुद्ध को रोकने के लिए भारत ने शांति सेना भेजी।
- हालांकि, यह मिशन विफल साबित हुआ और भारतीय शांति सेना को श्रीलंका से वापस बुलाना पड़ा। इसने राजीव गांधी सरकार की विदेश नीति पर सवाल खड़े किए। आंतरिक अस्थिरता और बढ़ते विद्रोह:
आंतरिक अस्थिरता और बढ़ते विद्रोह:
इससे क्या सीखते हैं?
बेटा, इस कहानी का एक बड़ा सबक है। राजनीति में सत्ता हमेशा जनता के हाथ में होती है। 1989 ने यह दिखाया कि अगर नेता अपनी जिम्मेदारी सही से नहीं निभाते, तो जनता उन्हें बदलने में देर नहीं करती।
और दूसरा सबक यह है कि हार मानने का साहस होना चाहिए। राजीव गांधी ने हार स्वीकार की, और यही एक सच्चे लोकतंत्र की पहचान है।
तो बेटा, यह कहानी सिर्फ इतिहास नहीं है। यह याद दिलाती है कि लोकतंत्र में जनता सबसे बड़ी ताकत होती है, और नेता का काम जनता की सेवा करना होता है। समझे?
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